जौनपुर। जिलाधिकारी डॉ0 दिनेश चंद्र द्वारा ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने हेतु किसानों को निरंतर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस बाबत उन्होंने कहा कि हमारे देश में फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिये यूरिया का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है, क्योंकि इससे फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है जो पौधों के विकास के लिये बेहद जरूरी है किंतु यह रासायनिक खाद, यूरिया, फास्फोरस, पोटाश या पेस्टीसाइड्स आदि जैव उर्वरक व कीटनाशक नहीं है जिसके कारण प्राकृतिक और जैविक खेती का मकसद पूरा नहीं हो पाता है। यही वजह है कि इसके दुरगामी समाधान के लिए अब किसानों के बीच ढैचा की खेती पर जोर दिया जा रहा है।
जिलाधिकारी ने कहा कि कृषक हित की दृष्टि से उनका अनुकरणीय प्रयास है। इसी दिशा में किसानों के बीच जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए एक माह पूर्व किसान खरीफ फसल गोष्ठी के माध्यम से जनपद में जो ढैंचा की बुवाई को बढ़ावा देने का निर्णय लिया है, कोशिश है कि देशी खेती को बढ़ावा देने के लिए ढैंचा की खेती की दिशा में क्रांतिकारी कदम हो सकता है।
उन्होंने बताया कि ढैंचा की उपज से मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है। ढैंचा नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाता है, इसलिये इससे विभिन्न फसलों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं और यूरिया, पोटाश, डीएपी आदि विदेशी खादों और कीटनाशक आदि की जरूरत कम पड़ती है, इसलिए इसको बढ़ावा देने से जहां एक ओर रासायनिक खेती हतोत्साहित होती है, वहीं जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है। इससे बहुमूल्य भारतीय मुद्रा की भी बचत होती है। ढैंचा का उपयोग हरी खाद के रूप में किया जा सकता है जिससे मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है जो मिट्टी की संरचना को बेहतर बनाने और जल धारण क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है। यही नहीं, ढैंचा गहरी मिट्टी की परतों से पोषक तत्वों को ऊपरी मिट्टी तक पुनर्चक्रित करने में मदद करता है जिससे वे बाद की फसलों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं।
उन्होंने बताया कि वर्तमान दौर में रासायनिक खादों के बढ़ते उपयोग और उससे मिल रहे गुणवत्ताहीन व पोषक तत्वविहीन कथित तौर पर जहरीले खाद्य पदार्थों को नियंत्रित करने के लिए ही सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है ताकि प्राकृतिक खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता बची रहे और बच्चों व समाज को एक अच्छा खाद्यान्न मिल सके। इससे मानवीय स्वास्थ्य अप्रभावित रहेगा, अन्यथा सरकारी मेडिकल खर्चों में भारी इजाफा करना पड़ेगा। किसान खाद्यान्न या बागवानी फसलों के साथ- की सह-फसली खेती भी कर सकते हैं, क्योंकि इसे फसलों में बीच में लगाया जाता है जिससे खरपतवारों की समस्या नहीं रहती है। चूँकि ढैंचा लगाने पर खेतों में झाडीदार उत्पादन मिलने लगता है जिसके चलते धूप सीधा जमीन पर नहीं पड़ती।
कृषि विशेषज्ञों की मानें तो ढैंचा की खेती करने के बाद इसे हरी खाद के रूप में इस्तेमाल करने पर यूरिया की एक तिहाई जरूरत कम हो जाती है जिससे पैसा और संसाधनों की बचत होती है। वहीं ढैंचा की हरी खाद बनाने पर खेतों में खरपतवार की संभावना नहीं रहती जिससे निकाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण की बड़ी लागत कम हो जाती है। चूंकि ढैंचा की पत्तियों में नाइट्रोजन का रस काफी मात्रा में होता है जिसके कारण कीट-पतंगों का असर सीधा फसल पर नहीं पड़ता और फसलें सुरक्षित रहती हैं। इससे फसलों में नाइट्रोजन के साथ-साथ फास्फोरस और पोटाश की भी आपूर्ति होती है जिससे पोषक तत्वों पर अलग से होने वाला खर्चा बच जाता है। इससे फसलों के साथ मिट्टी की सेहत भी कायम रहती है और ढैंचा की खेती से भूजल स्तर भी कायम रहता है जिससे अधिक सिंचाई की जरूरत भी नहीं पडती है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक एक हेक्टेयर में सिर्फ ढैंचा की खेती करने से 3 महीने में 10 क्विंटल ढैंचा उत्पादित किया जा सकता है और हजारों की जलावन की लकड़ी भी प्राप्त होती है, इसलिए इस दिशा में जारी सरकारी प्रयास आम लोगों के लिए स्तुत्य होनी चाहिए और जय किसान, जय जवान, जय विज्ञान और जय अनुसंधान पर आधारित सरकारी प्रयास को अपनाने में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए। चूंकि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में शुरू किया गया कदम, प्रादेशिक व राष्ट्रीय बदलाव का वाहक बनेगा। हमें भी शासन के इस अभिनव प्रयास के साथ कदम मिलते हुए अपनी कृषि को जैविक आधारित बनाना चाहिए।
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