कविता: कौवा बनकर क्यों आऊं
कौवा बनकर,
कुत्ता बनकर क्यों आऊं?
रोटी की लालच में
गैया,बछड़ा बनकर क्यों आऊं?
श्वेत पुष्प की गंध के लिए
भंवरा बनकर क्यों आऊं ?
दीन दुखी असहाय सरीखा
त्यक्ता बनकर क्यों आऊं?
जब मैं हूं तेरे रक्त, विचारों ,
अस्थि और मज्जा में तो
बाहर की दुनिया में
भ्रांति सरीखा बनकर क्यों आऊं?
मैं तो भीतर हूं तेरे
आशीष और अभिलाषा बनकर
बाहर मुझे तलाश करो मत
मनमारी प्रत्याशा बनकर।
अभिषेक उपाध्याय श्रीमंत
देवराजपुर, सुल्तानपुर।
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