खंडकाव्य प्रबंधकाव्य की एक खूबसूरत शक्ल होती है जिसके अंदर किसी अजीम शख्स/शहंशाहों की जिंदगी की पुरहकीकत तमाम वाक्यात में से किसी एक वाकया का ऐसी खूबसूरत तहरीर होती है जो इंसाफ,इंसानियत ,सदाकत और इखलाक की वजह से किसी भी अदब में कालजयी कायम होती है।साहित्य भूषण के खिताब से नवाजे गए पंडित विजय शंकर मिश्र "भास्कर"की अदबियत, ज़ेहन, खुश खयालात् का व खुश रंग कलम की खूबसूरती का गवाही देता खंडकाव्य "वन देवी" खंडकाव्य की तमाम शर्तों पर मुकम्मल खरा उतरता है। सर्गबद्धता, गीतात्मकथा, भाषा -शैली में सरलता, और रवानगी रस, छ्न्द , अलंकार,कहानी ,किरदार, संवाद ,देश -काल ,प्रकृति -चित्रण के साथ-साथ चरित्र -चित्रण पर विशेष बल व मकसद वगैरह की वजह से खंडकाव्य के उसूलों पर मुकम्मल खरा उतरा है।पूरी कथा की बुनियाद "रम्या रामायणी कथा"ही है जो भगवान राम के उत्तर चरित को ही भवभूति की अनुभूति से रूबरू करती है।
मुख्तलिफ रसों के अहसास के साथ करुण रस को खास तरजीह व तवज्जो, जिसकी वजह से पढ़ते वक्त पढ़ने वालों की आँखें बार-बार अश्कबार हो जाती हैं।
यह खूबसूरत खंडकाव्य मिथ्यापवाद, निष्क्रमण, तमसा तट, मोहभंग और अभिमत ऐसे पाँच अहम हिस्सों में तकसीम है।इस खंडकाव्य में उन पहलुओं को बड़ी संजीदगी के साथ पुररौशन किया गया है जिसे अब तक की कविकुल परंपरा में एहतराम व कद्र नहीं मिला जैसे तमसा तट, वाल्मीकि आश्रम के अन्य शिष्य तथा गौतमी आदि ऐसे पहलू हैं जो अक्सर अपेक्षित रहे हैं,इन सब चीजों पर कवि भास्कर जी ने गौर किया है।
पूरी कहानी राजतंत्र में जम्हूरियत (लोकतंत्र) की अहमियत और तरजीह का नतीजा। अदना सी रियाया का शक व तोहमत कुछ समय के लिए आफताब को तीरगी दे गया दे गया मगर इतना तो तय था -
दिनकर तो दिनमणि है,
कुछ काल तिरोहित होगा।
पर जनगण का यह दुर्मत,
युग- युग तक निंदित होगा।।
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थे भाँति -भाँति के अभिमत,
जितने मुँह उतनी बातें।
रघुवंश तिलक के अपयश,
को गाते नहीं अघाते।।
इन बातों से जाहिर होता है कि राम का ऐसा किरदार है जिसमें धर्मनीति और लोकमत में पूरा ताल-मेल है जो राम की खुशनुमा अजमत की तरफ इशारा करता है-
राजधर्म राजा की,
है सबके बड़ी विवशता।
राजा से भी बढ़कर,
इस राजा की नरसत्ता।।
माता कौशल्या के द्वारा राम को धिक्कारते हुए यह कहना कि हमारी सीता बेदाग और पाकीजा हैं।हे राम! यह काबिले गौर है,जिसके जवाब में राम की और रामराज्य की सदाकत मुखर होती है-
मैं सब कुछ मान रहा हूँ,
विश्वास करो हे मैया।
पर पाँवों में जकड़ी हैं,
शुभ राजधर्म की कड़ियाँ।।
यद्यपि पूरी कथा राम और सीता की पहले से ही सोची-समझी योजना है,उनकी नर लीला है-
लीलाधर तुम अद्भुत हो,
फिर करो नाथ नरलीला।
मेरी साँसों के स्वर हो,
मैं प्रभु की प्रिया सुशीला।।
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सौमित्र संग रघुनंदन!
भिजवाकर मुझको वन में।
रम जाएँ राम निराले,
फिर राजकार्य शासन में।।
किन्तु, उनकी नर लीला में आदमियत की तलाश, इन्साफ, सदाकत, इखलाक और मानवीय मूल्यों की तलाश ही अदबी तनक़ीद का मकसद है।
"निष्क्रमण सर्ग" में प्रभु श्री राम के लोक-मंगलकारी कार्यों में साया की शक्ल में चलने वाली सीता का साहस और उत्साह भरा कथन उनके जन कल्याणकारी कार्यों को पूरी कोशिश और सिद्दत के साथ उसे गति प्रदान करता है।वे कहती हैं -
हे प्राणेश्वर गरिमामय,
हे तपोनिष्ठ बलशाली।
क्यों कतराते जनमत से,
क्यों यह दुर्बलता पाली।।
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रघुनाथ बिकलता तजकर,
प्रभु राजधर्म पर चलकर।
मुझको दो ईप्सित रघुबर,
मन में यह भेद छिपाकर।।
आगे सीता जी जिस कदर श्री राम को दिलासा देती हैं वह मिथिला और अवध दो राजवंशों की तालीम,तर्बियत, तहजीब, अजमत और अस्मत का खूबसूरत मुख्तसर खुलासा है-
मैंने देखा मिथिला में,
पितु का कुटिया में रहना।
वह बैभव वह सम्प्रभुता,
पर बन विदेह तन कसना।।
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सब भाँति निरापद है वन,
मैं वन का आश्रय लूँगी।
उर में पल रही धरोहर,
ऋषि कुल को प्रश्रय दूँगी।।
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श्रम निष्ठा तप धर्माश्रय,
निज होम यज्ञ की चर्या।
मिथिला में भी पाली है,
मैंने कठोर दिनचर्या।।
ऐसी निर्दोष सीता की जिस्मानी और रूहानी काबिलियत का इंसान क्या कुदरत भी अपनी सब्ज मखमली कालीन फैलाकर इस्तकबाल करती है-
आ जा पुत्री मैं तत्पर,
स्वागत करती हूँ तेरा।
स्वागत में उषा खड़ी है,
लेकर अनजान सवेरा।।
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कलियों ने ली अँगड़ाई,
मुस्काकर घूँघट खोला।
तमसा ने तमक -तमक कर,
जल में अमृत रस घोला।।
महर्षि वाल्मीकि के द्वारा साध्वी सीता का पुत्री की तरह प्यार -दुलार से वन देवी कहकर इस्तकबाल करना इस खंडकाव्य के मुनासिब उनवान (शीर्षक) को पुररौशन करता है जो भास्कर जी के औचित्य पूर्ण काव्य कौशल का सबूत है-
वनदेवी कह मुनिवर ने,
दुहिता की भाँति दुलारा।
फिर इसी नाम से सब ने,
आदर के साथ पुकारा।।
"मोह भंग "सर्ग में भगवान श्री राम की सेना को लव और कुश के जरिए एक अच्छी शिकस्त मिलती है और यक़ीनन सबका गुरूर ख़ाक में मिल जाता है।
आखिरी सर्ग "अभिमत"में सारा का सारा अभिमत वनदेवी के हिस्से में आता है। करुणा ,पछतावा, आँसू, अफसोस के बीच वन देवी की बुलंद अस्मत दरबार-ए-अवध में एक नई तारीख व तारीफ़ कायम करती है, पूरा राम दरबार एक बार फिर से वन देवी सीता के पुनर्स्थापन के लिए कटिबद्ध होता है-
यदि सीता समुपस्थित हों,
माँ शपथ ग्रहण कर लेगी।
लोकापवाद झूठा है,
सब सभा वरण कर लेगी।।
इधर, सीता भी अपनी अजमत और अस्मत को सदियों-सदियों महफूज़ रखने के लिए अपने संकल्पों के प्रति कटिबद्ध हैं -
मैं वही करूँगी जिससे,
मिट जाय प्रवंचन सारा।
हो सदा -सदा के खातिर ,
रघुकुल में नव उजियारा।।
इस प्रकार अपनी अस्मिता को महफूज रखने रखने के लिए धरती की कोख से पैदा होने वाली सीता एक खुशनुमा अभिमत के साथ जमींदोज हो गईं -
लांछन हो गया तिरोहित,
अवरुद्ध हो गई वाणी।
जन-जन ने जाना माना,
सीता माता कल्याणी।।
..... प्रेम नाथ सिंह चंदेल
एम.ए.(हिंदी,संस्कृत, संगीत)
श्री गांधी स्मारक इंटर कॉलेज समोधपुर जौनपुर।
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